कवि मित्र केशव भाई के साथ पहली बार मैंने २ ० ० ९ में कविवर सुमित्रा नंदन पन्त की जन्मभूमि उत्तराखंड के कुमायूं अंचल के कौसानी कस्बे की यात्रा का आनंद लिया । लोभ इस बात का भी था कि वहीं पर वह अनासक्ति आश्रम है जहां महात्मा गांधी कुछ समय के लिए विश्राम हेतु देवदारुओं की ऊंची और शान्तिदायिनी छाया तथा नगराज हिमालय की तापसी एवं मनोरम वादियों के बीच ठहरे थे । वहीं उन्होंने ---अनासक्ति योग --- की रचना की थी । अनासक्त होकर कोई काम करना कितना कठिन होता है , इस रहस्य को जब रचनाकार या कोई भी व्यक्ति जान जाता है तो बड़ी रचना का जन्म होता है । आसक्ति मोह को जन्म देती है जिसे हमारे यहाँ सकल व्याधियों का मूल कहा गयाहै । तुलसी जैसे महान कलाकार ने कहा -----मोह सकल व्याधिन कर मूला । बहरहाल, उस समय भाई महेश पुनेठा ने अपने साथियों के साथ हमारी बहुत आबभगत की अल्मोड़ा में । यहीं मैंने निर्मल वर्मा की किताब एक किताब घर से ---चीड़ों पर चांदनी---खरीदी । शायद यहीं केशव जी ने तीनों ---तार सप्तक---- खरीदे । यहाँ हमने बस स्टैंड को स्टेशन कहते सुना । हम तो स्टेशन रेल के ठहराव स्थल को कहते हैं । यहाँ पहली बार पहाडी ---नौले--- जलस्थान को देखा । पहाड़ पर लालटेन तो खूब हो सकती हैं किन्तु पहाड़ पर कूप स्थल की हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे । यहाँ से दूसरे दिन हम पहाडी तिर्यक घूमों के अचरज कारी परिदृश्यों से गुजरते हुए पुनेठा जी की कर्मस्थली गंगोली हाट ---- गए । इस शब्द को सुनते ही विजेन्द्र जी की मशहूर कविता गंगोली याद हो आई । ये श्राद्धों के दिन थे यानी क्वार का महीना । भांग की चटनी पहली बार यहीं भाई राजेश पन्त के घर पर उँगलियों को चाटते हुए खाई । रात को पुनेठा जी की ससुराल में ठहरे और उनके श्वसुर साहब से पहाडी जीवन के विपत्तिकारी किन्तु आह्लादक जीवनानुभवों को कान लगाकर सुनते रहे । कौसानी में कविमित्र और बेहद संवेदनशील विचारक साथी कपिलेश भोज से मिलना इस यादों की एक मंजिल है । महाकवि पन्त का स्मारक उनकी गरिमा के अनुकूल नहीं लगा । यूरोप होता तो बात कुछ और ही होती ।इन्ही अपने पहाडी जीवन के अनुभवों से गुजरते हुए कभी पन्त जी ने लिखा था -----छोड़ द्रुमों की मृदु छाया/, तोड़ प्रकति से भी माया / बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दू लोचन । सच्ची कविता अनुभव की गहरी गलियों से होकर गुजरती है । यादें और बहुत सी हैं पर फिलहाल इतना ही ।
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