सामाजिक संरचना का गहरा असर रहता है लम्बी कालावधि तक, जब तक कि कोई बहुत बड़ा आन्दोलन व्यापक पैमाने पर इसके लिए न छेड़ा जाय । हमारे देश की ही नहीं , दुनिया भर की राजनीति और शासन -प्रबंध इस अनिवार्य बुराई से प्रभावित रहते हैं । इसीलिये उन्नीसवीं सदी में व्यापक पैमाने पर समाज सुधार आन्दोलन चले । राजनीति, समाज नीति से बड़ी नहीं होती । सभी पार्टियों में जाति , सम्प्रदाय , अंचल , भाषा , बोली , गोत्र , पाल और वर्ग के आधारों पर आंतरिक गुट बने रहते हैं । कम्युनिस्ट पार्टियां भी अपनी सामजिक- आर्थिक - सांस्कृतिक बनावट से कैसे अछूती रह सकती हैं ? यथार्थ और आदर्श में यह दूरी हमेशा रहती है । जब काम निकालना होता है तो 'समता के सिद्धांत' को मानने वाला भी असली बिंदु पर आकर कमजोर पड़ जाता है । फिर भी सोच-विचार और आचरण से इन स्थितियों में बदलाव आता है ।
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