Wednesday, 14 August 2013

आज़ादी को मैंने
छियासठ साल पहले
खेत की मैंड पर
खड़े नहीं देखा
वहाँ कुछ पन्ने जरूर थे
जो कुछ बतला रहे थे
जैसे बहका रहे हों
कोई लालीपॉप  देकर
बच्चों को

बहकावा सतत  जारी है
जिनके  हाथों में फूल हैं
वे बगीचे उन्होंने खुद नहीं लगाए
जिनके हाथों में पताकाएं हैं
वे नहीं जानते कि
इनके निर्माता
इनको फहराने वाले नहीं हैं

जो कुछ है उसमें सच की मात्रा
इतनी कम है कि
बार बार आज़ादी आने का
 शोर चौराहों पर
मचता है और
आज़ादी है कि हर बार
अपनी नई पौशाक में 
महलों में प्रवेश कर जाती है
रह जाते हैं महरूम
जो अपने पैरों पर चल कर
अपनी मंजिल तक पहुँचते हैं
फिर एक साल और बीतने का इंतज़ार करते हैं
शुभकामनाओं की प्लेट में कुछ मिल जाए । 

2 comments:

  1. सर बहुत बढ़िया कविता। सचमुच पिछले छह दशक से हमें बहकाया ही जा रहा है और हम शुभकामनाओ के प्लेट के इंतजार में रह जाते हैं।

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  2. धन्यवाद अरुण जी , आपने कविता पढी और उसके बारे में अपनी राय भी दी । ऐसी सलाहों से काफी बल मिलता है ।

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