Sunday, 25 August 2013

केंद्र जहां पर भी होते हैं ,वहाँ सत्ता का कोई न कोई रूप अवश्य होता है । सत्ता के राजनीतिक केंद्र ही नहीं होते वरन धार्मिक, सामाजिक,,आर्थिक  और साहित्यिक -सांस्कृतिक  केंद्र भी होते हैं ,। और ये सभी  राजनीतिक सत्ता पर आश्रित होते हैं । इसलिए अनेक लेखक सत्ता से भीतरी गठजोड़ बनाए रहते हैं । हमारे देश में  सामाजिक सत्ता एक  ऐसा सत्ता-स्रोत  है , जहां से चुनाव के दिनों में स्वयम 'सत्ता "भी अपने लिए सत्ता की मांग करती है । जिन समाजों में  वास्तविक धर्म-निरपेक्षता नहीं होती ,वहाँ धर्म और मजहब भी सत्ता के स्रोत बन  होते हैं । पूंजी और मसल पावर की भूमिका तो हम जानते ही हैं । इनके विपरीत एक वर्ग और होता है  जो इन सबके प्रतिरोध का साहित्यरचता है ।  , वह सभी तरह की सत्ताओं और उनके द्वारा किये जाने वाले अन्यायों, उत्पीड़नों के विरुद्ध अपने-अपने स्तर पर  खडा होता है और सामान्य जन के कर्म-सौन्दर्य और संघर्षों को सामने लाता है तो शक्ति-संरचनाएं अपना स्वरुप बदलती है , बात और बात के कहने के ढंग यानी  दोनों स्तरों पर ।
   आजकल शहरी उच्च मध्य वर्ग के पास कुछ कहने को रह नहीं गया है ,न वहाँ जीवन का राग है न बड़े मूल्यवान संघर्ष । प्रकृति से दूर होता एक वस्तुभोगी-विलासी निष्प्राण , अलगाव   का शिकार  व्यक्तिनिष्ठ समाज कभी साहित्य -संरचनाओं के लिए उपयोगी नहीं रह जाता । इस वजह से जनपदों का महत्त्व बढ़ जाता है ।
त्रिलोचन जब अपने मित्र -कवियों का साथ छोड़ते हैं और स्वयम को पैदल बतलाते हैं तथा दूसरों को घोड़ों पर बैठा हुआ ,तो वे शक्ति-संरचना  के बदल जाने की ओर ही इशारा करते हैं ।  अपने जनपदों - स्थानीयताओं के  मूल जीवन-स्रोतों से कटे  साहित्यकार , स्त्री-पुरुष के बनते बिगड़ते सम्बन्धों की सीमित दुनिया के रूपात्मक उलटफेरों -सरोकारों या फिर सत्ता-शक्ति केन्द्रों के प्रति अपनी थोड़ी-बहुत नाराजगी को प्रकट करते रहते हैं ।










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