पुरस्कारों और सम्मानों को पा जाने के बाद जो लोग कविता की ओर विशेष ध्यान देने लगते हैं ,वे कविता या साहित्य के संस्कारी पाठक नहीं हैं । यह पावस में दादुर ध्वनि जैसी बात है । ऐसे पाठक भेड़ -चालियों की गिनती में आते हैं । यदि पुरस्कारों और सम्मानों को पैमाना बना लिया जायगा तो प्रेमचन्द -मुक्तिबोध जैसे सच्चे रचनाकार किस पांत बैठेंगे? इनको जन-जन का दिली सम्मान मिला हुआ है । ये किसी सत्ता के , चाहे वह 'साहित्य-सत्ता' हो, उसके मोहताज नहीं हैं । पुरस्कार-सम्मान को ध्यान में रखकर कभी सच्चे साहित्य का सृजन नहीं हुआ करता । सत्ता चाहे "लोकतंत्र" के नाम वाली हो , होती वह सत्ता ही है ।यदि धन, पुरस्कार, सम्मान का ध्यान होता तो प्रेमचन्द-मुक्तिबोध सरीखे साहित्यकार कभी साम्राज्यवाद -सामंत वाद विरोधी साहित्य का सृजन नहीं कर पाते । हम जानते हैं कि देश को आज़ादी मिलते ही कितने ही साहित्यकारों ने अपना पाला बदल लिया था किन्तु मुक्तिबोध अभावों की जिन्दगी जीते हुए भी अपने विश्वासों से टस से मस नहीं हुए थे । ऐसा विरले लोग ही कर पाते हैं । इस बात का मुक्तिबोध को गहरा अफ़सोस रहा कि जो लोग पहले मार्क्सवाद की , क्रान्ति की डींगे हांका करते थे , वे सता का स्वाद चखने के लोभ में एक दिन में छिटक कर दूर हो गए किन्तु मुक्तिबोध ने मरते दम तक अपना विश्वास नहीं बदला । और मध्यवर्ग के अवसरवाद को ही अपनी भावी कविता का विषय बना डाला । यद्यपि उनकी कविता मध्यवर्ग तक ही सीमित नहीं है , उनके यहाँ उसका विकल्प वह लोक है जिसके पास ---" -ईमान का डंडा है , ह्रदय की तगारी है , बुद्धि का बल्लम है , बनाने को भवन , आत्मा के , मनुष्य के । " अवसरवाद बहुत बड़ी समस्या और चुनौती है , जिसका सामना मुक्तिबोध ने जितनी शिद्दत और जोखिम उठाकर किया , उतना शायद कोई अन्य कवि कर पाया हो ।
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