आज कृष्ण जन्माष्टमी है ।एक जाना-माना ब्रज-लोक-संस्कृति का ऐसा पर्व , जिसमें एक महान कर्मयोगी व्यक्तित्त्व का एक अन्यायी-अत्याचारी व्यवस्था का दमन करने के लिए जन्म होता है । मिथों में सांस्कृतिक सत्य का एक सीमित सारतत्व निहित रहता है इस वजह से वे समाज में इस तरह लोक -मान्य रहते हैं जैसे वे इतिहास का ही एक हिस्सा हों । आदमी ने अपनी तरह से अपने मन की सांस्कृतिक इतिहास -सर्जना की है । वह कभी-कभी आश्चर्य में डाल देता है । इस पृथ्वी पर जो समाज प्राचीन सभ्यताओं मेंआते हैं उनके लिए अपनी परम्पराओं और उनसे पैदा हुई संस्कृति का बड़ा महत्त्व होता है । जो लोग परम्परा को अतीत का बोझ समझकर उसका तिरस्कार करते हैं , यह लोक भी उनको वैसे ही निकाल फैंकता है जैसे दूध में से मक्खी को फैंक दिया जाता है । इसका मतलब यह कतई नहीं कि हम अतीतवादी हो जाएँ । कृष्ण-संस्कृति ने हमको सूर-मीरा रसखान जैसे कवि दिए हैं और वल्लभाचार्य जैसा युग-चिंतक , जिन्होंने आचार्य शंकर के मायावाद का खंडन कर इस संसार के सत्य को अपने तरीके से प्रतिष्ठित किया ।भक्ति-आन्दोलन से रची गयी कविता का सारतत्त्व आज भी हमारे बड़े काम का है । आचार्य शुक्ल ने अपने समय की कविता को छोड़ कर,भक्तिकालीन कविता से वे प्रतिमान विकसित किये ,जो आधुनिक कविता के काम भी आये । रामविलास जी ने उसे लोक-जागरण कहा । सूर ने इसी दर्शन से प्रेरित होकर एक ऐसे प्रेम-मार्ग का विकल्प सुझाया , जिसमें स्त्री-समाज ,उद्धव जैसे ज्ञानी पुरुषों को उनकी हैसियत बता देता है । यह जानकार आश्चर्य होता है कि उस सामंत-कालीन पितृ-सत्तात्मक समय में सूर ने कहीं कुछ स्त्री-विरुद्ध नहीं लिखा । शायद, यह उस कृष्ण -व्यक्तित्त्व की दिशा है जो राधा के लरिकाई प्रेम से संचालित हुए ।संगीत के लिए तो आज भी हिंदी-कृष्ण -संगीत वैसा ही है , जैसे आधुनिक युग के बांग्ला -संगीत में रवीन्द्र-संगीत ।
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