Sunday 25 August 2013

निलय भाई जो नया बन रहा है उसके आधारों की समझ नहीं बन रही है । आपको जानते ही है   कि मुक्तिबोध नेअपने जीवन-मूल्यों और  कविता रचने के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी थी । उनकी कविता के भीतर का लोक हू -ब हू वैसा नहीं है जैसा उनके समय में ही नागार्जुन,केदार , त्रिलोचन की कविता का था । किन्तु , उनका मोर्चा भी एक तरह से 'लोक'के मोर्चे से अलग नहीं है ।  । संघर्ष की संरचनाएं एक रूप नहीं होती । उनमें विविधता होती है । रूसी भाषा-साहित्य में तालस्ताय हैं तो गोर्की  भी और दौस्तोय्व्स्की -चेखव भी । चेतन और अवचेतन दोनों की कला है साहित्य । कई बार चेतन से अवचेतन ज्यादा महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है । हमारे लोक की सीमा यह रही है कि वह व्यक्ति-अवचेतन को बुर्जुआ मानकर छोड़ देता है । और मुक्तिबोध को सूची से बाहर । जब कि मुक्तिबोध साफ़-साफ़ शब्दों में कहते हैं -------" हम इसमें खुश हैं कि मुक्ति की तुम्हें खोज /विचार तुम्हारे सूक्ष्म /बिजली के बल्ब प्रतीकों में बंधते हैं /बंधने दो/ तुम भी लड़ते हो /सुना  है कि तुम भी खूब /शहरों के लुच्चों से करते हो दो दो हाथ /डाकुओं से हम भी तो लड़ते हैं /ताज़ी कटी फसलों का नाज़ बचाने को / किन्तु तुम जड़ और ठस हमें कहते हो /क्यों कि  हम सिपाही /क्यों कि हम गाडीवान /और तुम शहराती नुक्कड़ के कॉफे में /बताना न चाहते पहचान । ("इसी  बैलगाड़ी कविता" ---से )इस कविता में प्रयुक्त हम  और तुम सर्वनाम साफ़ बतला रहे  हैं कि मुक्तिबोध कहाँ  खड़े हैं और किनके साथ खड़े हैं ? लोक की ऐसी दो-टूक पक्षधरता की हिम्मत तो आज भी  कोई- कोई कवि ही दिखला पा रहा है । मुक्तिबोध के यहाँ कोई दुविधा नहीं है ।वे सुविधापरस्ती  और दुविधा के बीच पेंडुलम की तरह नहीं झूलते । वे जहां हैं वहाँ हैं । दो-टूक और चाक-चौबंद । 





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