Thursday 22 August 2013

बहुत दिनों से अपने प्रिय कवि आत्मा रंजन के पहले कविता संग्रह----पगडंडियाँ गवाह हैं ------ पर कुछ कहने का मन बन रहा है पर -गृह कारज नाना जंजाला ---- और कभी-कभी यह फेस बुकिया  संवाद - रस  रास्ते से भटकाता रहता है । एकाग्र-चित्त होकर ही कविता पर कुछ सार्थक कहा जा सकता है । यों तो आलोचना की भी एक बंधी-बंधाई शब्द-सत्ता बन चुकी है , जिसमें किसी भी कविता को कैसे भी टांका जा सकता है , कोई एक कसौटी तो होती नहीं । जैसे मेरी पसंद उस कविता की  है जो समय के अंतर्विरोधों को उदघाटित  करती हुई अपने समय और स्थानीय कर्म-सौन्दर्य को एक समग्र विश्व दृष्टि के साथ प्रस्तुत करने की रूप-सम्पन्न शिल्प-क्षमता रखती हो । स्थानीयता एक तरह से कवि -कर्म की विश्वसनीयता  और जीवन मूल्यों की साधारणता का जमीनी परिप्रेक्ष्य है ,जिसके बिना कवि की बातें हवा में रहती हैं और वह किसी भी अखबार की खबर को कविता में बदलता रह सकता है । वैसे अखबार की खबर से कविता रची जा सकती है ,पर वह  अपनी मिट्टी में सनी हुई हो , उसका तथ्यात्मक ही नहीं वरन भावात्मक और सौन्दर्यात्मक संयोजन भी हो । कविता जीवन का सबसे सरस व्यापार है । जब मैंने आत्मा रंजन की कविताओं को पढ़ा तो लगा कि यह कवि सही मायने में अपनी जमीन पर खडा है ।
   हिमाचल प्रदेश के पहाडी जीवन की कर्म-निष्ठा यहाँ इस समय के भावात्मक और वैचारिक सत्कर्म की द्वंद्वात्मकता में उझल-उझल कर आती है जैसे पहाड़ से झरना कभी मंद-मंद , तो कभी पूरे वेग से मैदान पर उतरता  है ।वे कविता बच्चों और उनके खेल पर लिखते हैं किन्तु वहीँ से अपने समय की आहट सुनाई देने लगती है जैसे शिमला के माल रोड पर खेलते बच्चों से प्रश्नाकुलित कवि मन , खेल और बच्चों तक आकर ही ठहर नहीं जाता । एक जगह वे इस समय के आभिजात्य को धता बताते हुए कहते हैं -------"कब,कहाँ,  क्यों ,कैसे से बाखबर माल / नहीं जानता /मौसम के कहर के बावजूद /मील भर दूर /कब,क्यों,कैसे महक उठा एक झाड/ खिल उठी लकदक कुज्जी की /दूधिया कलियाँ । "
अपने से होती हुई ये कवितायें दूसरों के बारे में बहुत कुछ कहती हैं पूरे शब्द-सलीके के साथ । अपनी भाषा-बोली का  आस्वाद इसे आत्मा रंजन की कविता बनाता है ।उनको बहुत बहुत बधाई 








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