चौरासी कोस की परिक्रमा देश में कई जगहों पर लगती हैं लेकिन उनका चरित्र राजनीतिक नहीं होता । जो लोग जनता को " भेड़ "मानकर चलते हैं । उनको कर्नाटक के दो लोकसभा उप-चुनावों के परिणाम पर गौर फरमा लेना चाहिए , तब मालूम पडेगा कि " काठ की हांडी "एक बार ही चढ़ती है , बार-बार नहीं । सब जान गए हैं कि यह परिक्रमा होती तो लोक-वेद के अनुसार बैसाख-जेठ के महीनों में लगती । अब इसका राजनीतिक पुण्य पाने की हिकमत हो रही है , सब जानते हैं और सभी अनाज खाते हैं । हमारे ब्रज में भी चौरासी कोस की परिक्रमा लगती है ।हमारे कामां (कामवन ) में चौरासी खम्भे, चौरासी कुण्ड और चौरासी मंदिर प्रसिद्ध हैं । वहाँ वैष्णव परम्परा के अनुगामी खूब जाते हैं बिना किसी राजनीतिक पुण्य के लिए । शायद यह आंकडा जीव के चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने से बचने के रूपक में आया है । लोक-विशवास को भुनाने से नरक ही मिलता है । यह भी शास्त्रों में लिखा हुआ है ।
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