सच्ची और सही आलोचना का विकास तभी संभव हो पाता है , जब व्यक्ति में सही को सही कहने और सुनने का साहस आ जाय । यह साहित्य में ही नहीं जीवन में भी जरूरी है । सही मायने में लोकतंत्र का विकास आलोचना करने और सुनने का माद्दा विकसित करने से ही होता है बशर्ते कि निजी पूर्वाग्रहों से बचकर चला जाय । पसंदगी में जीवनानुभवों की बहुत बड़ी भूमिका रहती है । वे जितने व्यापक होंगे ,आलोचना की जमीन उतनी ही पुख्ता होगी ।
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