यदि कोई मन से सीखना चाहे तो हमारे पर्व-उत्सव भी कुछ न कुछ कहते ही हैं । पूंजीवादी और नव-उदारवादी व्यवस्था तो स्वयं आदमी को वस्तु में बदल रही है फिर भी आदमी इन्ही संकरी गलियों में से अपना रास्ता खोजने की कोशिश करता है । पर्व किसी सभ्यता - संस्कृति की पहचान भी होते हैं । इतिहास एक दिन में नहीं बना है । उसके बोध को बनाए रखेंगे तो पर्व बाधक न बन कर साधक बन जायेंगे । जिन्दगी में थोड़ी देर ही सही और चाहे बनावटी ही सही, कुछ मिठास -सी तो घोलते ही हैं ये पर्व-त्यौहार । सामूहिकता लाकर हम इनको भी पूंजीवादी व्यवस्था को बदलने का औज़ार बना सकते हैं ।
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