साहित्य लत नहीं ,जब जीवन की आवश्यकता बन जाय , जैसे आक्सीजन , तभी समर्पण और निष्काम भाव से साहित्य रचा जा सकता है , जिसमें रचते चले जाने के अलावा और कुछ अच्छा नहीं लगता । जैसे संत कहा करते थे कि हमको सीकरी से क्या काम है ? जिन संतों को सीकरी से काम होता है वे संत नहीं होते । साधु वेशधारी कथा वाचक संत नहीं हुआ करते । वे व्यवसायी होते हैं जैसे पुरस्कार-कामना से लिखा साहित्य ,सच्चा साहित्य नहीं हुआ करता । देश का दुर्भाग्य यह है कि वह साधुता और व्यावसायिकता में फर्क करना भूल गया है । और सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इन साधु - वेशी" मोड़ों " के चेले नेता इनसे डरते बहुत हैं ।ये ही सबसे पहले इनके चरणों में झुकते हैं । ऐसे बाबाओं को हमारे यहाँ राठ अंचल में " मोड़ा " कहा जाता है । जो कदाचित इनके लिए सबसे सटीक शब्द है ।
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