Monday 12 August 2013

मेरे जिगरी दोस्त श्री यादव शम्भु ने जाति -बिरादरी के सवाल को लेकर एक बहस चलाई ,जिसमें संयोग से मैंने भी अपना मत रखा । उससे उनको कुछ गलतफहमी भी हुई , जिसको मैंने तुरंत दूर भी कर  दिया । दरअसल , निरपेक्षता जीवन का एक बड़ा और वैज्ञानिक मूल्य है , वह अभ्यास में आते-आते ही आता है औरजिस समाज में  रोटी-बेटी के व्यवहार में मूलगामी परिवर्तन नहीं आए हों ।वहां तो निरपेक्षता में आने तरह के अवरोध आते हैं ।  मेरे अपने जीवन की घटना है । मेरा तबादला राजस्थान के एक छोटे कस्बे  के कालेज में हो गया था । उस समयहमारे प्रदेश के  एक ब्राह्मण शिक्षा मंत्री थे । मेरे एक नज़दीकी 'ब्राह्मण ' दोस्त ने अपने एक रिश्तेदार के माध्यम से मेरा तबादला निरस्त कराने की कोशिश की तो सवाल  आया कि मेरी जात क्या है ? चूंकि मैं मंत्री की जात से नहीं हूँ , इसलिए साफ़ मना कर दिया गया । ऐसे ही एक बार पुलिस कार्यालय में मैं अपने पुत्र के पासपोर्ट के काम से कई बार चक्कर लगा-लगा कर लगभग थक चुका था । अचानक एक दिन मुझे वहाँ घूमते  हुए मेरे एक जानकार रिश्तेदार और  बिरादरी भाई ने देखा और पूछा कि क्या बात है , मैं आपको कई दिनों से यहाँ आते और लौट जाते देख रहा हूँ । मैंने उनको सारी व्यथा-कथा सुनाई तो उन्होंने तुरंत कहा कि लाइए मुझे बतलाइये क्या करना है ? अपना बिरादरी भाई इस कुर्सी पर है । आप सच नहीं मानेंगे कि तुरंत काम हो गया ।  इससे मेरे मन पर भी  सापेक्षता के  असर की एक रेखा खिची । हो सकता है दूसरे लोग कुछ दूसरी तरह से अपने काम निकाल लेते हों , लेकिन यह हमारी निजामी वास्तविकताएं हैं जो हमारे कमजोर मन को प्रभावित किये बिना नहीं रहती । मैं निरपेक्षता का ढोंग चाहे कितना ही क्यों न करूँ ? कोशिश जरूर करनी चाहिए कि वास्तविक जिन्दगी में भी हम अपनी बहुत बड़ी बिरादरी बनाएं । बड़ी और समझदार बिरादरी बनेगी तो एक दिन पूरा देश ही एक बड़ी बिरादरी में बदल जाएगा । जैसे हमारे लेखक भाई कँवल भारती के प्रकरण में हुआ है । इसे देखकर मन को बड़ी तसल्ली मिलती है कि हाँ अभी बहुत - कुछ बचा हुआ है ।

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