Saturday 31 August 2013

कविता और क्रान्ति
टेढा सवाल है कि कविता क्या करती है ? या कविता क्या है ? यह सवाल जब भी कोई कविता लिखता होगा, उसके मन में जरूर उठता होगा ।  जो कविता पढता है , उसके मन में भी आता होगा कि वह कविता पढ़ क्यों रहा है ? हर बात से क्रान्ति नहीं हुआ करती , फिर भी हम उस बात को  करते रहते हैं । आज भी आचार्य शुक्ल की यह  बात अच्छी लगती है  कि "कविता मनुष्य - भाव की रक्षा करती है " । जिनके पास अपार और अकूत दौलत है ,सत्ता की पूरी ताकत है ,वैभव है , विलास का महासागर है धरती से लगाकर आसमान तक सब कुछ उन्होंने अपने "तीन पैंड " में नाप लिया है , पर मनुष्य-भाव नहीं है तो सब कुछ थोथे चने की तरह है ।यह मनुष्य भाव ही तो है , जो मनुष्य को पशु से अलग करता है । अन्यथा  वह  "पुच्छ-विषाण -हीन " पशु ही तो है । लेकिन इसको समझकर व्यवहार में उतारना वैसा ही है जैसे वर्तमान में अमरीका को युद्ध-विरत रख पाना और देश के बिगड़ते हालातों में 'समाजवादी अर्थ-व्यवस्था ' का विकल्प देना । मुझे लगता है कि यदि व्यावहारिक स्तर पर मनुष्य- भाव की रक्षा होती रहेगी  तो एक दिन वह दिन भी आ जायगा, जिसे हम क्रान्ति का दिन कहेंगे । कविता हमारे मन को रचती हुई कुछ ऐसा ही करती रहती है , बशर्ते कि वह कविता हो । विखंडित नहीं पूरी कविता । 

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