Thursday, 15 August 2013

सत्ता -चरित्र

एक कहानी थी
'तिरिया चरित्तर'
लोग इसे सच माने बैठे थे
वे लोग भी जिनके चरित्र
कंटीले बियाबानों की तरह नंगे होते हैं
चरित्र की वहाँ बहुत चर्चा थी
जहां चरित्र नाम की चींटी भी नहीं पाई जाती

सबने देखा है कि 
तरु के
लिपटती है लता और
तरु लिपटने देता है
यह  शक्ति का केंद्र
जहां भी होगा
यही होगा
यह चरित्र नहीं प्रकृति है

चरित्र का पता तब चलता है
जब हम फूलों के बगीचे में हों
और फूलों को खिलने  दें
जब हमारे हाथ में लगाम हो और
हम घोड़ों को उसी राह पर हांकें
जो मंजिल तक जाती है

जब हम रक्त की धारा पर खड़े हों और
रक्त का ऐसा इम्तिहान न लें
कि रक्त को पानी पानी कहकर
उसकी शिनाख्त को बदल दें

सत्ता रक्त- पिपासु कब हो जाय
पता नहीं चलता
उसका चरित्र कब करवट ले जाय
पता नहीं चलता
शेर जंगल में अपने शिकार को
घात लगाकर पकड़ता है
सता हर क्षण घात लगाती है
उसके लिए कोई दिन निर्घात नहीं होता

ये विज्ञापन
साधारण खरगोशों के लिए
जाल की तरह फैला दिए गए हैं
खरगोश और जंगल के रिश्ते को
मिटाने की कोशिशें जारी हैं

जंगल का चौधरी
एक खूंख्वार  बर्बर  शेर
समुद्र पार
खरगोशों के जंगल में
स्वच्छंद विचरण पर
लगातार घात लगाये
पूरी चौकसी बरत  रहा है

सताएं सभी
आदमखोर होती हैं
आदमी की सत्ता आने में अभी देर है । 


































































No comments:

Post a Comment