Saturday, 24 August 2013

कविता भाव की कला है, विचार और विश्वदृष्टि के साथ के बिना, भाव  अपने समय से कटा रहता है । हमारे यहाँ  "रस सिद्धांत"' यद्यपि सामंत युग में विकसित हुआ किन्तु उसमें भाव के साथ जो विभावन व्यापार है उसके  आलंबन, उद्दीपन और  आश्रय की स्थितियों में युगांतरकारी परिवर्तन हुआ है । अब मध्यकालीन आलंबन विभाव  की जगह पर "मेहनतकश" आ गया है । कविता एक रूपक व्यापार भी है । जीवन की सौन्दर्यपूर्ण रचना । प्रेम,घृणा ,भय ,क्रोध सभी तो वर्ग - संबंधों और वर्ग-संघर्षों में काम करते हैं । प्रेमचंद  ने "जीवन में घृणा का स्थान " निबन्ध जब लिखा तो मूल में भाव तत्त्व ही था,जो विश्लेषण की प्रक्रिया से  विचारधारा के क्रम में वर्तमान-धर्मी हुआ ।  जुगुप्सा इसी का  स्थायी भाव है । जैसे हम पुरानी  कविता का नया पाठ करते हैं वैसे ही पुराने सिद्धांतों की प्रासंगिकता  को जांचते हुए उनका  नया पाठ करना चाहिए । रामविलास जी ने भी भाव तत्त्व को केंद्र में माना है शुक्ल जी ने तो माना ही है । हाँ, नगेन्द्र जी का 'रस सिद्धांत' फिर से सामन्ती प्रतिमानों को स्थापित करने की कोशिश थी  , जो सफल नहीं हुई । नामवर जी ने "कविता के नए प्रतिमानों' को  अमरीकी  नयी समीक्षा और आधुनिकतावाद के प्रमाणों से देखने की कोशिश की ,लेकिन "अनुभूति " से वे भी न बच  सके ।

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