Sunday 11 August 2013

अट्ठारह सौ सत्तावन
अब कोई सन-संवत नहीं
हमारी आत्मा की एक धधकती ज्वाला है
वह लड़ाई है भीतर से भग्न कर दिए गए
एक चालाक , धूर्त , धोखेबाज आधुनिकता से
भोले किसान योद्धाओं की
जो नहीं जानते थे कि
सामने एक गहरी खाई और कुए हैं -----अंधकूप

वह विक्षोभ है असहनीय गुलामी के विरुद्ध
वह आक्रोश है पराधीनता में जुल्मों के विरुद्ध
वह गुस्सा है चापलूसी से पाए ओहदों के विरुद्ध
वह असंतोष है अपनी जड़ों से कट जाने के विरुद्ध


उसमें सब कुछ सही न हो फिर भी
मानवता के भाल को उन्नत बनाये रखने की
 एक छोटी सी कोशिश जरूर है ।
उसकी याद  आज भी
एक रास्ता दिखलाती है ।
कि हम अंधेरी गलियों में भटकने से
मुक्ति पा सकते  हैं

जिस शिकंजे में हमको फिर से
कसा जा रहा है
खोल सकते हैं उसकी
उलझी हुई गुत्थियों को भी ।

No comments:

Post a Comment